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भयभीत जीवन

 *आवारा कलम से*


 दिनेश अग्रवाल वरिष्ठ पत्रकार

शहडोल.l ब्रितानिया हुकूमत से भारत को आजाद हुए लगभग आठ  दशक तो बीत रहे होंगे लेकिन इस देश से निरक्षरता को हम आज-तक दूर नहीं कर पाए----।

 फिर भी हम जनता को आर्डर देते रहते हैं कि सावधान sss   ।

फिर कहते हैं---

 विश्राम ssss

जनता मुश्किल के बाद सावधान होती और एक बार सावधान हो गई तो विश्राम में नहीं आती और अगर विश्राम में चली गई तो फिर बड़ी मुश्किल से सावधान में आती ।

अब हम कैसे बताएं की निरक्षर जनता से परेड कराना- कितना मुश्किल भरा काम है ।

हमारा जो अति संवेदनशील प्रशासन है वह बिचारा जनसेवा की भावना से दिन-रात कभी माइक लेकर, कभी चोंगा लेकर, कभी डुग्गी पिटवाकर  चीखता चिल्लाता रहता है सावधान-------- विश्राम और जनता है कि अपने ही ढर्रे पर अपना जीवन जीती हुई दिखती है ।

लेकिन

 कोविड-19 का ऐसा दौर देश में आया जिसने काया- माया पलट दी। सबसे बड़ा परिवर्तन तो यह हुआ कि

 जनता सावधान और विश्राम जैसे शब्दों से हटकर अब फर्राटे से लॉकडाउन और अनलॉक सीख गई। समझने भी लगी है और कहना भी मानने लगी है अब तो शहर की पक्की सड़कों से हटकर गांव की कच्ची गलियों और पगडंडियों से लगी जो परचून की दुकान  हैं उनके सामने कोई मजाक में भी कहे लॉक डाउन तो बेचारा वह प्रतिष्ठित व्यापारी ताबड़तोड़ सामान समेटकर दरवाजा बंद कर सामने बैठ जाता है इसी के साथ-- साथ जनता ने दूसरा शब्द सीख लिया   "मास्क" छोटे-छोटे बच्चे भी मास्क लगाने लगे। हाथ धोने लगे ।

जो काम स्कूल से और साक्षरता के अभियान से पूरा नहीं हो पाया था , वह अब कोरोना  वायरस ने कर दिखाया है । फर्राटेदार गांव का आदमी जब अंग्रेजी में बोलता है लॉकडाउन , मास्क, रेमदेसीविर, आर टी पीसीआर, ऑक्सीजन, हॉस्पिटल एंबुलेंस तो महसूस होता है, कि यह तो साक्षर हो 

गयाssss।

हालां कि इस काम के पीछे पुलिस का बहुत बड़ा योगदान था । बड़ी मेहनत से वह  लोगों को साक्षर कर पाई ।

अनेकता में एकता का प्रतीक यह भारत अब तमाम रस्मों- रिवाजों और तीज- त्योहारों से बाहर निकलकर एकता के सूत्र में आ गया  । हर जाति धर्म और आयु वर्ग के लोगों का एक ही त्यौहार रह गया "अनलॉक" और सामान्य जीवन का नाम हो गया "लॉकडाउन" । ऐसे संकेत मिला है अन्य परिस्थितियों सामान्य रहने पर 1 जून से अनलॉक होगा और 6 महीने के भीतर--भीतर फिर लॉक डाउन होगा और इन सब की तैयारियां भी चल रही है इस आपाधापी में उनके आंकड़े किसी के पास नहीं है जिनकी रोजी-रोटी चली गई और आंखों के सामने पारिवारिक जिम्मेदारियों का फंदा गले में निपटने के लिए तैयार है अपने भविष्य के लिए उत्साहित और सारे आसमान को बाजुओं में समेट लेने को आतुर युवा पीढ़ी कक्षाएं ना लगने और परीक्षा ना होने के कारण अंधे कुएं में झांकने को मजबूर है। इस देश का जो नौनिहाल है, किलकारियां मारता बचपन है, आंगन की रौनक बढ़ाता हुआ बालपन है, यह भी अत्यंत भयभीत है तीसरी लहर का खंजर इसी के ऊपर लटका हुआ बताया जा रहा है। कहने को हम आत्मनिर्भर होने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं लेकिन बेरोजगारी और महामारी के भय ने हम सभी को निचोड़ के रख दिया है। आज किसी के घर में यह उलहाना नहीं चलता कि घोड़े जैसे हो गए हो कुछ कमाते क्यों नहीं ?

 घर पर बैठे-बैठे कब तक टुकड़े तोड़ोगे? क्योंकि यह महाभारत जीवन और मृत्यु के बीच जो चल रही है-- इसकी समयावधि 18 दिन नहीं बल्कि 18 महीने से ज्यादा हो गई । रोग से बचाव की समझाइश ही भगवद गीता बनकर रह गई है।

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